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प्रकृति की कुरूपता

Digital कलम
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प्रकृति की कुरूपता

“प्रकृति के लिए, प्रकृति की गोद में,

बैठा एक दिन मैं लिखने के लिए,

सामने एक अद्भुद नज़ारा था,

कितना सुन्दर कितना प्यारा था,

लिखने के लिए शब्द,

जैसे ही मैंने कलम उठाई,

सामने एक परछाई सी पड़ती है दिखाई,

कंकाल के सामन वह प्राणी,

मुर्दों ही की जाति का लगता था,

हरी भरी इस जन्नत के बीच,

काला धब्बा सा मालूम पड़ता था,

बदरंग किस्म का वह बदरूप,

कुरूपों में उच्च लगता था,

श्याम देह झुकी कमर वाला वह,

इस जीवन पर बोझ लगता था,

शिकवे थे जिसे बहुत,

मेरी इस प्रकृति से,

शायद इसकी सुन्दरता में,

वह विलीन हो जाना चाहता था |”

(भवदीय – प्रशांत सिंह)

(प्रशांत द्वारा रचित अन्य रचनाएँ पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें –बदलाव)

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