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दिमागी बुखार – गोरखपुर का अभिशाप

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दिमागी बुखार – गोरखपुर का अभिशाप

मैं गोरखपुर के सरकारी अस्पताल के बाहर बैठा हुआ बस का इंतज़ार कर रहा था | अपने एक दोस्त को देखने आया था अस्पताल में, जो की भगवान् की दया से ठीक हो रहा था |

मेरे पास में ही एक बुजुर्ग सा दिखने वाला आदमी परेशान सा बैठा था | जमीन की तरफ अपनी आँखों को गड़ाये हुए, अपनी आँखों में आंसुओं को रोकने की भरसक कोशिश कर रहा था |

“ जनाब, ठीक है ना सब, कोई समस्या तो नहीं ? “ मैंने आत्मीयता के साथ उससे पूछा |

“ बाबु जी , ठीक और गलत तो सब समय का फेर है | बस हम तो अपनी किस्मत के हाथों जी रहे हैं |” आँखों में आंसू लिए हुए भी बड़ी सज्जनता से उसने जवाब दिया |

तभी बस आ गयी और हम दोनों बस में चढ़ गए | मैं उस आदमी की कहानी जानना चाहता था इसलिए बस में उसके पास वाली सीट पर ही बैठ गया |

मैं बोला, “तो फिर बात क्या हुई है ?”

कुछ जवाब ना दिया उसने, बस वो शांत बैठा रहा | थोड़ी देर बाद वो आदमी बस से उतर गया | मैं भी उसके पीछे पीछे बस से उतर गया और उसके साथ साथ चलने लगा |

“डेथ सर्टिफिकेट लेने गया था साहब | २ दिन पहले गुजर गया मेरा लड़का”, करीबन रोते हुए बोला वो |

“क्या हुआ था ?” मैंने बहुत धीरे से बोला की अगर वो जवाब ना भी देना चाहे तो, मैंने देखा की उसके आँखों में अभी भी आंसू थे |

“दिमागी बुखार बाबु जी , हर साल हमारे गाँव से बहुत सारे बच्चे मर जाते हैं इस बला से | पता नहीं क्यों डॉक्टर साहब लोग भी कोई इलाज़ नहीं निकाल पा रहे | १० बरस का था हमारा मुन्ना, बहुत इलाज़ कराया लेकिन कछु फायदा नहीं हुआ | सारी जमीन बेच डाली हमने, की कैसे ही बस हमारा बच्चा ठीक हो जाये | लेकिन भगवान को कुछ और ही मंज़ूर था | ”, बोलते बोलते वो अपने उपर नियंत्रण नहीं रख पाया और जोर जोर से रोने लगा |

मैंने सुना था इस बीमारी के बारे में | ये दिमागी बुखार हर साल हजारों की तादाद में छोटे छोटे बच्चों को निगल जाता है | दिमागी बुखार को गोरखपुर का अभिशाप कहते हैं | हजारों की तादाद में बच्चे हर साल दिमागी बुखार का शिकार बनते हैं और काल के गाल में समा जाते हैं | अगर बच्चे बच भी गए तो ज्यादातर विकलांग हो जाते हैं | अमूमन ये बच्चे उन गरीब घरों के होते हैं जिनके लिए एक वक्त के रोटी का जुगाड़ भी बहुत मुश्किल से हो पाता है |

मैंने उसको शांत कराने की कोशिश की | मेरी जुबान पर शब्द तो नहीं आ रहे थे लेकिन सांत्वना देने के लिए मेरी आँखों में आंसू जरूर आ गए थे |

(भवदीय – प्रशांत सिंह)

(प्रशांत द्वारा रचित अन्य रचनाएँ पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें – बदलाव)

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